ABHIJIT RANJAN

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वो आखो में बसी है




वो आंखों में बसी हैं
ये कैसी दिल्लगी हैं?
जब वो याद आती हैं
वह दिल को गुदगुदाती हैं
देखा था उसको पहली बार
ऑफिस में बैठा था
सामने वाली कुर्सी पे यार
आंखे हुई दो चार
दिल हो गया उधार
ये मेरा पहला प्यार हैं
इश्क़ का खुमार हैं
दो चार दिनों का बुखार हैं
गोला गोला सा चेहरा उसका था
माथे पे एक काला तिल था
वो कैंटीन में जाती हैं
मुझको देख मुस्कराई हैं
वो नहीं शर्माती हैं
सांसों को चिढ़ाती हैं
बार बार दिल का रक्तचाप बढ़ाती हैं
मै पागल आशिक़ हूं
मै इश्क़ के काबिल हूं
मैं इश्क़ का भोगी हूं।।

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1 Comments

Swati chourasia

25-Dec-2021 04:53 PM

Nice

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